बिहार में जाति आधारित गणना के प्रकाशित होने के बाद कई सवाल उठे है। यह स्पष्ट रूप से सामने आया है कि बिहार की एक बड़ी आबादी आर्थिक रूप से विस्थापित हो चुकी है। किन्तु ये आंकड़े वास्तविकता से मेल नहीं खाते है। कई गैर सरकारी संस्थानों द्वारा पूर्व में हुए सर्वेक्षण में विस्थापित आबादी के आंकड़े बिहार सरकार के आंकड़े से बिलकुल अलग तस्वीर पेश करते है। जाति आधारित गणना रिपोर्ट के अनुसार बिहार की कुल आबादी 13,07,25,310 है। बिहार से अन्य प्रदेशों में विस्थापित हुई आबादी 45,78,669 (कुल आबादी का 3.50%) है। जबकि विदेशों में विस्थापित हुई आबादी 2,17, 449 (कुल आबादी का 0.17%) है। बहरहाल, यदि बिहार सरकार के आंकड़ों को ही प्रमाणिक माने तो भी कई सवाल स्वतः पैदा होते है। अमूमन ये सवाल देश-दुनिया के कई हिस्सों में रहते है। विस्थापन के बाद मनुष्य को कई समस्याओं, प्रतिरोध को झेलना पड़ता है। किन्तु सवाल उठता है कि क्या बिहार से होने वाला आर्थिक विस्थापन और प्रवासन क्या अनूठा है? क्या यह बिहार के लिए शर्मनाक है? आइए, इन्हीं की पड़ताल करने की कोशिश करते है:-
आनुवांशिकीविदों के मुताबिक दक्षिण अफ्रीका से लगभग 70,000 साल पहले भारतभूमि पर होमो सेपियंस यानी आधुनिक मानव के पूर्वजों का आगमन हुआ था। लगभग 60,000 साल पहले दक्षिण अफ्रीका के दक्षिण मार्ग होते हुए अरब से दक्षिण एशिया, दक्षिण पूर्व एशिया होते हुए ऑस्ट्रेलिया तक स्थानान्तरण हुआ। अफ्रीका और एशिया से ऑस्ट्रेलिया तक पहुंचना होमो सेपियंस की साहसिकता का प्रमाण है। वरना शायद ही कोई ऐसी मजबूरी रही होगी कि समुंदर पार करने करना जरुरी रहा हो।
मानवीय प्रागैतिहासिकता का अध्ययन करने पर प्रतीत होता है कि 9,000 साल पहले पश्चिम एशिया से आधुनिक मानवों की एक बड़ी आबादी सामूहिक रुप से विस्थापन कर यूरोप में जा बसी थी, जो वहां के पूर्व से बसी आबादी में घुल-मिल गई। फिर लगभग 5000 साल पहले यूरेशियाई घास के मैदानों से यूरोप महाद्वीप में दूसरी बार एक बड़ी आबादी का आगमन हुआ। इसी तरह अमेरिका में मूल आबादी में एशिया से जाकर लोग मिश्रित हो गए। चीन में कृषि के विस्तार की परिणति में पूर्वी एशियाई देशों में एक बड़ी आबादी का फैलाव हुआ। अर्थात अनेकों शोध के आधार पर एक मान्यता है कि 70 हजार साल से 60 हजार साल पूर्व के बीच की अवधि में ही एशिया आबाद हुआ है। भूभाग के प्रत्येक क्षेत्र पलायित मनुष्यों या प्रवासियों से आबाद है।
मानव इतिहास में विस्थापन और प्रवासन मनुष्य की स्थायी प्रवृतियाँ है। मूल निवास और देश छोड़ कर अन्यत्र स्थान अथवा अन्य देश में रहना प्रवासन है। प्रवासन के पीछे कई कारण होते है, यथा देश निकाला होने और युद्ध जैसी विभीषिकाओं से उत्पन्न परिस्थियों से मजबूर होकर भी मनुष्य को अन्यत्र जगह प्रवास करना पड़ा है। कई बार प्रवासन के पीछे सामाजिक और आर्थिक कारण होते है। मनुष्य की प्रवृति ही ऐसी है कि कभी नई दुनिया की खोज तो कभी खुद के लिए बेहतर अवसर की तलाश के लिए तो कभी प्रकृतिजन्य आपदाओं और आपसी संघर्ष की वजह से पलायन करता रहा है। यूं कह सकते है कि एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा कर बसेरा बना लेना मनुष्य का स्वभाव है। प्रवासन नई संभावनाओं की तलाश हेतु मनुष्य की साहसिक क्रिया है। किंतु अपने मूल भूमि पर कुव्यवस्थाओं की परिणति में प्रवासन के लिए जनसंख्या का विस्थापन शर्मनाक स्थिति है। वर्तमान विमर्श में ऐसी अवस्था को पलायन कहा जाता है। पलायन शब्द को हिंदी भाषा में कायरपन, मज़बूरी में हुए जनसँख्या के स्थानान्तरण के द्योतक के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। किंतु ऐसी व्याख्या से इस सत्य को नकारा नहीं जा सकता कि विस्थापन मनुष्य की स्थायी प्रवृति है। हजारों सालों में कई विपदाओं को झेल कर यदि मनुष्य अपने अस्तित्व को बरक़रार रखने और धरती की व्यवस्थाओं को नियंत्रित करने में काफी हद तक सफ़ल हो सका है तो इसका वजह परिस्थियों के अनुसार विस्थापन करना भी है।
विस्थापन सिर्फ त्रासदी या अवसर नहीं है बल्कि संस्कृति का विस्तार भी है। दुनिया को एक करने का माध्यम है। पूरब और पश्चिम का मेल खान-पान, रहन-सहन, नस्लीय बाध्यताओं को तोड़ कर रिश्ते-रिवाज, तकनीक का विकास, मानवीय मूल्यों का संवर्द्धन इत्यादि मनुष्य के विस्थापन की देन है। न्यूयार्क और दुबई में गुजराती खाना, नई दिल्ली में चाइनीज फ़ूड, भारत में कोट-पैंट और टाई जैसे परिधान विस्थापन की ही परिणति है। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि गोवा में पुर्तगाली संस्कृति की झलक, सिंगापुर में पश्चिम और पूरब की साझा संस्कृति की तस्वीर की जड़ में भी विस्थापन ही है। विश्व के कई भूभागों में उपनिवेशवाद का आरम्भ भी विस्थापन से ही शुरू होता है। पुर्तगाली, फ़्रांसीसी और ब्रिटिश भारत में कदम रखते समय विस्थापित लोग ही थे। आगे चल कर उन्होंने व्यापार, अधिकार और युद्ध जैसे कई प्रपंच से भारत को अपना उपनिवेश बना लिया।
युद्ध, आपदाओं, यातनाओं को झेलकर बेवतन हुए चेचेन्या और तिब्बत के शरणार्थी हो या अमेरिका की आईटी कंपनियों में रोजगार के बेहतर विकल्प के लिए जाने वाला भारतीय हो या रोजगार के लिए खाड़ी देशों में आर्थिक प्रवासन करने वाला तीसरी दुनिया का कुशल मजदूर हो, या मुंबई की सड़कों पर अपमान झेलकर भी बड़ा पाव बेचने वाला उत्तर भारतीय हो, सब विस्थापित ही हैं। मनुष्य का विस्थापन शहरों के महानगर होने की वजह है। यदि विस्थापित हुई आबादी का सही से नियोजन न हो सका तो मुंबई की धारावी बस्ती आकार ले लेती है। आधुनिक युग में आर्थिक प्रवासन करना किसी व्यक्ति के शर्म का विषय नहीं बल्कि सरकारों की असफलता है। हालाँकि विस्थापन कोई नई परिघटना नहीं है। संभवतः मानव सभ्यता के विकास का रास्ता विस्थापन ही है.. विस्थापन न यानी नई संभावनाओं की तलाश… जो विभिन्न कारणों से हर युग में होता रहा है।
दुनिया भर के अनेक हिस्सों में मनुष्य का विस्थापन साम्राज्यवाद की त्रासदी के रूप में हुआ है। दुनिया के शक्तिशाली देश अपनी ताकत के विस्तार के लिए मानवीय मूल्यों की ठेंगे पर रख कर जनसँख्या के स्थानांतरण के कारण बने. किन्तु आगे चल कर इस त्रासदी का अंजाम अलग-अलग कई संस्कृतियों के मिलाप के रूप में हुआ।
• 16वीं शताब्दी में दास प्रथा के कारण बड़े पैमाने पर जनसंख्या का स्थानान्तरण हुआ। अनुमानों के मुताबिक एक करोड़ से अधिक गुलामों को दक्षिण अफ़्रीका से अमेरिका और कैरिबियाई द्वीपों पर जबरन ले जाया गया। जिसका एकमात्र उद्देश्य था कि वहां ब्रिटिश व्यापारियों को सस्ता श्रमशक्ति की आपूर्ति हो सके। दास प्रथा पर साल 1834 में पूर्णतः रोक लग गया, किन्तु इसकी निशानी अमिट रह गई। वर्त्तमान में अमेरिका और कैरिबियाई देशों में लगभग 4 करोड़ लोग अफ़्रीकी अश्वेत गुलामों के वंशज हैं।
• सन 1834 में दास प्रथा खत्म होने के पहले से ही अंदेशा था कि वैश्विक आलोचना के प्रभाव में इसे खत्म करना होगा। इसके मद्देनजर पहले से ही ब्रिटिश व्यापारियों ने एग्रीमेंट के तहत भारत और चीन से मजदूरों की आपूर्ति का रास्ता तलाश लिया। भारत से पहला जहाज कैरिबियन द्वीपों की ओर साल 1826 में बढ़ा था। तब से लेकर साल 1917 तक भारत से लगभग 2 करोड़ भारतीयों को कॉन्ट्रैक्ट के तहत मजदूरी करने के लिए दक्षिण अफ्रिका, दक्षिण अमेरिका, कैरिबियाई देशों त्रिनिदाद, गुयाना, फिजी समेत कुल 19 द्वीपों पर ले जाया गया. जिन्हें ‘’गिरमिटिया मजदूर’’ के रूप में जाना जाता है। सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि चीन से भी बड़ी संख्या में मजदूरों को फिलीपींस और कैरेबियन द्वीपों पर ले जाया गया था। इस प्रथा के खत्म होने के बाद दो तिहाई से अधिक मजदूर इन द्वीपों पर ही रह गए, वे अपने मूल वतन वापस नहीं लौट सकें। पलायन की इस त्रासद गाथा से पैदा हुई चेतना ने इन प्रवासियों को मॉरीशस, फिजी, गुयाना, त्रिनिदाद जैसे द्वीपों के शासक वर्ग के रूप में तब्दील कर दिया। इन द्वीपों पर भारतीय संस्कृति की झलक की जड़ में उपनिवेशवाद का क्रूर चेहरा भी है।
• 16वीं शताब्दी से लेकर 20वीं शताब्दी तक ब्रिटेन, फ्रांस, पुर्तगाल, नीदरलैंड समेत यूरोप के कई देशों ने अपने नागरिकों को दूसरे देशों बने उपनिवेशों में बसने का मौका दिया। कई देशों के मूल आबादी के लिए यह प्रवासन खतरनाक साबित हुआ। जबकि यूरोपीय देशों के लिए अपना प्रभाव दुनिया में बढ़ाने के लिए सुनहरा मौका रहा।
• द्वितीय विश्वयुद्ध खत्म होने के बाद साल 1950 तक दुनिया से ब्रिटेन जैसे शक्तिशाली देशों का उपनिवेशवाद समाप्ति की ओर था। विश्व में औद्योगिकीरण का प्रभाव दिख रहा था और दूसरी तरफ गरीब देशों में भी आर्थिक उदय के लिए छटपटाहट तेज हो रही थी। नतीजतन आर्थिक कारणों से जनसंख्या का स्थानान्तरण तब से अभी तक अंत्यंत ही तेजी से हो रहा है. यूनाईटेड नेशन डिपार्टमेंट ऑफ़ इकोनोमिक एंड सोशल अफेयर्स के अनुसार आज दुनिया में अन्तराष्ट्रीय प्रवासियों की संख्या 281 मिलियन से अधिक है, जो विश्व की कुल जनसंख्या का 3.5 प्रतिशत है।
• 16वीं शताब्दी से 20वीं शताब्दी के बीच अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और एशिया प्रशांत क्षेत्र में लगभग 6 करोड़ आबादी यूरोपीय देशों के औपनिवेशिक नीति के कारण स्थानांतरित हुई थी।
दो देशों के बीच युद्ध और सरहदों पर टकराव के परिणाम में भी बड़े पैमाने पर पलायन देखा गया है। धर्म के आधार पर हुए नरसंहार, राष्ट्र निर्माण के लिए हुए हिंसक संघर्ष के नतीजे में आबादी का पलायन भी समकालीन इतिहास में देखा गया है। शरणार्थियों से संबंधित संयुक्त राष्ट्र संघ की ग्लोबल रिपोर्ट 2022 के अनुसार युद्ध, आपदा जैसी विभीषिकाओं के कारण कुल 112.6 मिलियन लोग शरणार्थी की जिंदगी जी रहे है। यह पलायन मानव सभ्यता के लिए कोई नई घटना नहीं है।
• द्वितीय विश्वयुद्ध में सोवियत रूस के शासक जोसेफ स्टालिन ने चेचेन्या के लोगों पर जर्मनी का साथ देने का आरोप लगाकर अत्याचार शुरू किया तो चेचेन्या के लगभग 4,00,000 नागरिक मध्य एशिया के कई देशों में प्रवासन के लिए मजबूर हुए थे।
• भारत-पाकिस्तान विभाजन के कारण सन 1947 से 1950 की अवधि में 1,50,00000 लोगों ने दोनों देशों के सरहदों को पार कर विस्थापित होना पड़ा। इस विभाजन के विवाद में 10,00,000 लोग दंगे में मारे गए थे।
• इजरायल के निर्माण के बाद लाखों यहूदी नागरिक यूरोप के विभिन्न देशों से आकर इजरायल में बस गए। सन 1948 से पहले इजरायल की मुख्यभूमि पर यहूदियों की आबादी 4 लाख 93 हजार थी। इजरायल के निर्माण की घोषणा के बाद यह आबादी 6 लाख 87 हजार हो गई। तदोपरांत दुनिया भर में बसे यहूदियों की आबादी इजरायल में जाकर बस गई। सोवियत रूस के विघटन के कारण साल 1989 से 2000 के बीच लगभग 8,00,000 यहूदियों ने इजरायल में प्रवेश किया. मौजूदा समय में इजरायल में यहूदी नागरिकों की संख्या लगभग 70,00,000 है।
• लगभग 22,00,000 अफगानी नागरिक अफगानिस्तान में युद्ध और यातनाओं के कारण ईरान, पाकिस्तान, भारत जैसे कई देशों में शरणार्थी के रूप में रहने को मजबूर हैं।
• सीरिया में गृहयुद्ध के कारण लगभग 67,00,000 सीरियाई नागरिक तुर्की समेत कई देशों में विस्थापित हो गए हैं।
• म्यांमार के लगभग 10,00,000 रोहिंगिया शरणार्थी बांग्लादेश, भारत और इंडोनेशिया जैसे देशों में शरणार्थी के रूप में रह रहे हैं।
आर्थिक प्रवासन का तंत्र-मंत्र
भारतीय अमीरों का अमेरिका में विस्थापित होना हो या मैक्सिको के नागरिकों का अमेरिका में प्रवेश करना हो, भारत के गुजरातियों और पंजाबियों का कनाडा जाना हो, पाकिस्तानियों का ब्रिटेन जाना, केरल के निवासियों का खाड़ी देशों में जाना हो यह मुंबई के अमीरों का आबुधाबी में घर बना कर बस जाना हो। नई दुनिया की तासीर में आर्थिक प्रवासन के लिए विस्थापित होना कूट-कूट कर भरा हैं. यह विस्थापन अवसर देता है; विरोध में उपजे टकराव से गुजर कर आगे बढ़ता है। विस्थापित हुई आबादी के द्वारा शहरों का विस्तार होता है साथ ही साथ देश की जीडीपी का भी आकार बढ़ता है। दुनिया के एक हिस्से के लोग दूसरे हिस्से के लोगों की संस्कृति से परिचित हुए है तो उसके कई वजहों में से एक आर्थिक प्रवासन और विस्थापन भी है। दुनिया का शायद ही कोई ऐसा भूभाग होगा जो प्रवासियों से गुलजार नहीं होगा। अमेरिका से लेकर भारत तक, दक्षिण अफ्रीका से लेकर यूरोप तक तमाम देशों की आबादी में मिश्रित नस्ल वाले समूह की जनसंख्या अच्छी-खासी है। भारत और चीन के आईटी पेशेवरों ने अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, यूएई, फ्रांस, कनाडा जैसे देशों में पलायन कर विश्व में सूचना और तकनीक की क्रांति लाने में मदद ही किया है। दुनिया के अधिकांश शहर मनुष्यों के विस्थापन और आर्थिक प्रवासन की विकासात्मक परिणति है। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया आर्थिक प्रवासन के लिए विस्थापित हुए लोगों से अटा पड़ा है। दुनिया के जितने भी विकसित मुल्क है, सबकी जड़ में विस्थापन है। चाहे बाहरी हो या आंतरिक, श्रमशक्ति का आपूर्ति के लिए एक आबादी का विस्थापन और आर्थिक प्रवासन अनिवार्य शर्त है। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि विस्थापन और आर्थिक प्रवासन के बिना आर्थिक विकास असंभव सा है।
मूल निवासियों और प्रवासियों का टकराव मनुष्य की स्थायी प्रवृति
यूरोप में निएंडरथल के कंकाल मिलने के बाद से जीवाश्म वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि लगभग 20 से 30 हजार वर्ष पूर्व धरती पर निएंडरथल की मौजदूगी थी। निश्चित रूप से होमो सेपियंस से उनका संबंध भी था। निएंडरथल के विलुप्त होने का कारण अभी तक तलाशा नहीं जा सका है किन्तु संभव है कि दोनों मानव की ही प्रजाति होने होने के बावजूद लगभग 60 हजार साल पहले होमो सेपियंस से निएंडरथल का टकराव हुआ होगा। जब होमो सेपियंस ने निएंडरथल को समाप्त कर जब आधिपत्य जमा लिया होगा तो भी इनका टकराव अलग-अलग द्वीपों के कई प्रजातियों से हुआ होगा। उसके बाद आधुनिक मानव सभ्यता के विकास होने के बाद भी नस्लीय आधार पर एक दूसरे से टकराने की प्रवृति मनुष्य का मूल स्वभाव है। धरती के सबसे ज्यादा चालाक प्राणी होमो सेपियंस के मूल स्वभाव में टकराव और पलायन दोनों है। परिस्थितियों के अनुसार खुद को ढालने की क्षमता से युक्त आधुनिक मनुष्यों का मूल चरित्र वर्चस्व के लिए एक-दूसरे से टकराना है तो मौका देख का विस्थापित हो जाना भी है। आधुनिक सभ्यता के विकास के बाद भी यह स्वभाव नहीं बदला है तो हैरत नहीं होनी चाहिए। युगोस्लाविया का संकट, फिजी में संघर्ष नस्लीय हिंसा, उत्तर भारतीयों और दक्षिण भारतीयों के साथ मुंबई में हुई हिंसा, शिया-सुन्नी संघर्ष, आईएएसआईएएस और कुर्द लड़ाकों के बीच संघर्ष समेत श्वेत-अश्वेत का रंगभेद मनुष्य के मूल स्वभाव को ही परिलक्षित करता है। मनुष्य के विस्थापन से उपजे विवाद का उतर मानव सभ्यता के इतिहास में छिपा हुआ है। सिर्फ शासकों या राज्य के नीति नियंताओं की असफलता को जिम्मेवार ठहराना सही नहीं होगा।
चीन का विकास और आर्थिक प्रवासन
चीन के आर्थिक उन्नति और कायाकल्प होने के पीछे चीन के आंतरिक हिस्से में एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त आर्थिक प्रवासन करने वाले मजदूरों का श्रम लगा है। वाशिगटन विश्वविद्यालय के कं विंग चांग द्वारा किए गए शोध Migration and development in China: trends, geography and current issues के मुताबिक साल 1990 से 2005 की अवधि के बीच 8 करोड़ चीनी नागरिकों ने अपनी मुख्यभूमि से पलायन किया है. प्रति वर्ष लगभग 23 करोड़ चीनी नागरिक अपने ही देश में प्रवासी की जिंदगी बिताते हैं, जिनमें 16 करोड़ ग्रामीण हैं। देशों के अन्दर होने आर्थिक प्रवासन के मामले में यह वैश्विक प्रवासियों के कुल संख्या का एक तिहाई सिर्फ चीन का हिस्सा है।
भारत और बिहार का आर्थिक प्रवासन
भारत में विकास की ऊंचाईयों को छूने वाले राज्य तमिलनाडु, गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा के पुनर्निर्माण की कहानी प्रवासियों के बगैर नहीं लिखी जा सकती है। मुंबई, नई दिल्ली, गुरुग्राम, हैदराबाद, पुणे, कोलकाता, चंडीगढ़ और नोएडा जैसे शहरों के विकास के पीछे सिर्फ पूंजी प्रवाह ही नहीं बल्कि प्रवासियों की श्रम पूंजी भी है। सन 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की कुल आबादी के 4.7% लोग एक राज्य से दूसरे राज्य में और 0.44% लोग विदेशों में रहने वाले प्रवासी है।
सन 1991 से 2000 के बीच गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, दिल्ली और हरियाणा जैसे राज्यों ने अन्य राज्य के लोगों को बड़े पैमाने पर आकर्षित किया है । इन प्रदेशों की श्रम शक्ति मुख्यतः उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, छतीसगढ़ और मध्य प्रदेश जैसे पिछड़े राज्यों से आर्थिक प्रवासन के लिए विस्थापित हुई आबादी ही हैं। किन्तु यह इन पिछड़े राज्यों की सरकारों के लिए असफलता का द्योतक है कि अपने राज्य की ‘’डेमोग्राफिक डिविडेंड’’ अर्थात जनसांख्यिकी लाभांश का इस्तेमाल अपने राज्य के विकास के लिए नहीं कर सकें। नतीजतन अन्य राज्य‘डेमोग्राफिक डिविडेंड’ का लाभ उठा रहे हैं। देश में विकास के असंतुलन की जिम्मेदारी से न तो केंद्र सरकार भाग सकती है और न ही कोई भी राज्य सरकार अपना पिंड छुड़ा सकती हैं। किन्तु यह असफलता न तो आश्चर्य की बात है न ही भारत के लिए राष्ट्रीय शर्म की बात है।
दुनिया के किसी भी देश में क्षेत्रीय विषमता सामान्य बात है। उदाहरण के तौर पर रूस का तुवा, अमेरिका का मिसिसिपी, कनाडा का क्यूबेक और ऑस्ट्रेलिया का तस्मानिया प्रान्त अन्य प्रदेशों के अपेक्षा काफी पिछड़ा हुआ है। यूरोप के भी कई राज्यों में मानव संसाधन के अभाव में विकास कार्य धीमा होने के कारण श्रमशक्ति की आपूर्ति के लिए दक्षिण एशिया का मुंह देखा जा रहा है।
हालाँकि यह भी देखना दिलचस्प होगा कि बिहार आर्थिक प्रवासन के लिए विस्थापन का दंश झेल रहा है या प्रवासियों द्वारा भेजी हुई राशि से अपनी आर्थिक स्थिति को सुधार रहा है। मानव संसाधन पूंजी के मामले में बिहार एक मॉडल हो सकता है, बशर्ते कि राज्य की सरकार अपने नागरिकों को कुशल बनाने पर ध्यान दें। बिहार की समस्या सिर्फ कृत्रिम नहीं है, यह प्राकृतिक भी है। बिहार का दो तिहाई हिस्सा बाढ़ की चपेट में लगभग प्रति वर्ष रहता है। जनसंख्या घनत्व के कारण पंजाब के मुकाबले प्रति व्यक्ति एक तिहाई जमीन है । ऐसे में अपनी घनी आबादी को ‘डेमोग्राफिक डिविडेंड’ में बदलने के प्रति उदासीनता भी कम जिम्मेवार नहीं है। बिहार जैसी स्थिति वाले किसी भी राज्य से पलायन होना तय है ।
बिहार से होने वाला आर्थिक विस्थापन कोई नई घटना नहीं है। दस्तावेजों के मुताबिक बिहार से विदेशों में हुआ सबसे पहला आर्थिक विस्थापन ब्रिटिश शासनकाल में सन् 1826 में हुआ था। यह आर्थिक विस्थापन कैरेबियाई द्वीपों पर ब्रिटिश व्यापारियों के ईख की खेती, चीनी मीलों में काम करने के लिए हुआ था। चूंकि उन निर्जन द्वीपों के विकास के लिए पूर्व से चली आ रही ‘दास प्रथा’ के तहत गुलामों को ले जाने पर रोक लगाने की मांग तेज हो रही थी। ऐसे में दास प्रथा के खिलाफ उठ रही मांग को भांप कर ब्रिटिश व्यापारियों ने श्रमशक्ति को पूरा करने के लिए भारत और चीन का रुख किया था। सन् 1834 में दास प्रथा पर रोक लगने के बाद भारतीय मजदूरों का आर्थिक विस्थापन और तेज हो गया।
हालाँकि बिहार से इंटर-स्टेट-माइग्रेशन की दास्ताँ इससे भी पहले की है। जमींदारों के द्वारा लगान वसूली में क्रूर व्यवहार के कारण भोजपुर इलाके से बंगाल क्षेत्र में आर्थिक विस्थापन 18वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में ही होने का प्रमाण मिलता है। 18वीं सदी का बिहार के हवाले से अजय कुमार पुस्तक “अंग्रेजी राज़ में कुशवाहा खेतिहर” में लिखते हैं कि राज जमींदार अथवा मालगुजार अपने रैयतों से तीज त्योहार, शादी विवाह, मरनी हरनी इत्यादि अवसरों पर अववाब वसूलते थे। अववाब रुपए पैसे तथा भोज्य सामग्री के रुप में वसूले जाते थे। अंग्रेज़ कंपनी सरकार ने इस प्रथा पर रोक लगाई। फ़िर भी इस मामले में कमी नहीं आई तो भोजपुर (डुमरांव) के जमींदार विक्रमजीत सिंह को 1792 में जमींदारी से बेदखल कर उन्हें जेल में डाल दिया गया था। अजय कुमार अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि दरभंगा राज जो वैश्या का नाच देखना होता तो भी जनता पर पुनाही टैक्स लगा दिया जाता। सब्जी उगाने वाले कोयरी लोगों से खपता की वसूली होती तो मवेशी चराने वाले ग्वालों से खर चराई और भैंसदहा टैक्स के रुप में वसूला जाता था। गिद्धौर राज़ ऊंची जाति के रैयतों से 51% और पिछड़ी जातियों के रैयतों से 57% उपज टैक्स के रुप में वसूला जाता था। अपनी पुस्तक “मास्टर साहब” में महाश्वेता देवी एक पात्र के हवाले से लिखती हैं कि डुमरांव के महाराजा विक्रमजीत सिंह ने उपज का दो तिहाई लगान वसूलना शुरू किया.. मजबूरन बड़ी संख्या में लोग बंगाल की तरफ पलायन कर गए।
बिहार की श्रम शक्ति के लिए आर्थिक विस्थापन न सिर्फ मज़बूरी बल्कि एक परंपरा की तरह भी बन गया है। किन्तु त्रासदी यह है कि आर्थिक विस्थापन करने वाले लोगों में अर्द्धकुशल और अकुशल लोगों की तादाद ज्यादा है। बिहार से आर्थिक विस्थापन करने वाले 85 प्रतिशत लोग अपने परिवार को घर पर छोड़ कर जाते हैं, क्योंकि उनकी आय कम होती है। आईआईटी, हैदराबाद के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर अमृता दत्ता अपनी पुस्तक Migration and Development in India में लिखती हैं कि प्रवासन के लिए मजबूर परिवार का पहला सदस्य अपने परिवार के लिए गाइड के तौर पर भी होता है, जो अपने परिवार के अन्य सदस्यों के लिए करियर बनाने में मदद करता है, आर्थिक सहयोग करता है। रेमिटेंस का एक बड़ा हिस्सा परिवार के अन्य सदस्यों की पढ़ाई पर खर्च होता है। इंस्टिट्यूट ऑफ़ ह्यूमन डेवलपमेंट के सर्वे के अनुसार बिहार से 74 प्रतिशत लोग अच्छी आय के लिए विस्थापित होते है। आर्थिक प्रवासन को लेकर व्यापक दृष्टिकोण से देखने की जरुरत है। बिहार के कई लोगों के लिए आर्थिक प्रवासन शर्म का विषय नहीं बल्कि रोजगार प्राप्ति समाज में प्रतिष्ठा की वजह बनता है।
बिहार के गाँव-गाँव में आर्थिक प्रवासन के लिए शहर गए अनेक लोगों की सफलताओं की अनगिनत कहानियां है। शहर संभावनाओं को पूरा करने के लिए अनुकूल माहौल उपलब्ध कराता है। मनुष्य को अपने लिए बेहतर अवसर की तलाश भी आर्थिक प्रवासन करने पर मजबूर करती है, किन्तु जब उसी खोज में वह सफल होता है तो लोग उसे सम्मान की नजर से देखने लगते है। आर्थिक प्रवासन आत्मनिर्भरता के लिए भी होता है, निजी काम-धंधा, कंपनी खड़ा करने के लिए अनगिनत कहानियां है, जो आर्थिक प्रवासन से ही संभव हुई है। कारपोरेट जगत में झंडे गाड़ने वाले सम्प्रदा सिंह, किंग महेंद्र, अनिल अग्रवाल विस्थापित बिहारी है। ऐसे ही हजारों सफल लोगों की दास्ताँ विस्थापन का जिक्र किए बगैर पूरी नहीं हो सकती है।
यह अलग बात है कि शहरों में पूर्व से स्थापित आबादी के लिए विस्थापित ग्रामीण नागरिक दोयम दर्जे के नागरिक की तरह व्यवहार करते है, उनकी संस्कृति, रहन-सहन में भिन्नता होने की वजह से उनके लिए हेय होते है। किन्तु सच यह है कि शहरों का निर्माण विस्थापन और आर्थिक प्रवासन से पैदा हुई परिघटना ही है। शहरों में आर्थिक उन्नति तो है लेकिन विस्थापित लोगों के लिए सामाजिक स्वीकार्यता के हालात ठीक नहीं है। शहरों में लोग गाँव-जवार, रिश्तेदारों का नेटवर्क बना लेते है। आर्थिक प्रवासन का साहसिक पहलू यह भी है कि गाँव से विस्थापित हर आदमी शहरों की चकाचौंध में अकेला होता है, किन्तु उसे साथ उसके घर की भावनाएं होती है, परिवार जी जिम्मेदारी होती है। किसी की शादी का खर्च उठाना होता है तो किसी को उच्च शिक्षा दिलाने का खर्च उठाना होता है। आर्थिक प्रवासन सिर्फ पेट में अन्न डालने के लिए नहीं होता है। आर्थिक प्रवासन से प्राप्त आमदनी अब टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल पर भी खर्च हो रहा है। अच्छी शिक्षा के लिए पलायन करने वाले लाखों में हैं। मानवीय इतिहास में तेजी से हो रहे परिवर्तन में खुद को पीछे छूट जाने के भय से भी विस्थापन और आर्थिक प्रवासन हो रहा है।
अमेरिका-कनाडा सीमा पर जान गंवाने वाले प्रवासी भारतीय
वर्तमान में 3 करोड़ 10 लाख से अधिक भारतीय नागरिक विदेशों में प्रवासी है। विदेश मंत्रालय के अनुसार साल 2011 से 2023 में कुल 17.50 लाख से ज्यादा लोगों ने अपनी भारतीय नागरिकता छोड़ दी है। अधिकतर नागरिकों ने अमेरिका, आस्ट्रेलिया, कनाडा, यूके इटली जैसे देशों की नागरिकता हासिल किया है। लाखों अरबपतियों के भारत छोड़ने की वजह देश का स्किल वर्क फ़ोर्स की कमी, ट्रेवलिंग में कठिनाई, सोशल सिक्योरिटी का भाव, आंतरिक माहौल, ख़राब शिक्षा प्रणाली वगैरह है। अमेरिका में अवैध ढंग से प्रवेश करने की कोशिश में गिरफ्तार भारतीयों में सबसे अधिक गुजरात के निवासी है। अमेरिका-कनाडा सीमा के पास अमेरिका में अवैध तरीके से प्रवेश के लिए इंतजार करते 4 भारतीय नागरिकों के एक परिवार के सदस्यों जगदीश बलदेवभाई पटेल उम्र 39 वर्ष, वैशालीबेन जगदीशकुमार पटेल उम्र 37 वर्ष, विहांगी जगदीश कुमार पटेल उम्र 11 वर्ष और धर्मिक जगदीश कुमार पटेल उम्र 3 वर्ष ने कनाडा-अमेरिका के सीमावर्ती शहर एमर्शन में -35 डिग्री सेंटिग्रेड की ठंढ में सिकुड़ कर जान गंवाने की मार्मिक कहानी गुजरात के लिए शर्म की वजह नहीं बनती है। ईदी अमीन के अत्याचारों से युगांडा से वापस लौटने वाले 80,000 भारतीयों में अधिकांश गुजराती हो या कुवैत संकट के समय लौटने वाले भारत के किसी भी हिस्से के नागरिक हो, उनका किसी राज्य से होना उनके राज्य के लिए शर्म का विषय नहीं होता है तो सिर्फ बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, छतीसगढ़ जैसे राज्य ही क्यों आलोचना का शिकार होते है? समय-समय पर नेताओं, विश्लेषकों के बयानों से आर्थिक प्रवासन के लिए विस्थापित हुई आबादी के सम्मान पर ठेस पहुँचती है । कोई यह बताए कि दुनिया भर के लिए विस्थापन और आर्थिक प्रवासन अपरिहार्य घटना है किन्तु उत्तर भारतीयों का आर्थिक प्रवासन शर्म की बात कैसे है? यह दोहरा मापदंड है । आर्थिक विस्थापन शर्म नहीं बल्कि खोजी स्वाभाव वाले मनुष्य के लिए बेहतर अवसर की तलाश है। यदि यह शर्म की बात है भी तो यह सिर्फ उत्तर भारत ही नहीं बल्कि पंजाब, केरल, गुजरात और महाराष्ट्र समेत पूरे भारत के लिए भी शर्मनाक स्थिति है?
रेमिटेंस: आधुनिक अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण घटक
विदेशों में होने वाले पलायन हो यह देशों के अन्दर ही पलायन हो, यह दुनिया भर में हो रहा है। कोई भी देश इससे अछूता नहीं है। किन्तु दुनिया के कई ऐसे देश है जिनके सकल घरेलु उत्पाद में पलायन किए हुए नागरिकों द्वारा भेजे गए राशि (रेमिटेंस) का बड़ा योगदान है। IHD Bihar Surveys, Household sample, 2011 के अनुसार बिहार नागरिकों की कुल आय में भी रेमिटेंस का योगदान 49.5 प्रतिशत है, औसतन अधिक जोत वाली जातियां, कम जोत वाली जातियां और भूमिहीन जातियों में आर्थिक विस्थापन का अनुपात लगभग बराबर है। ओबीसी से अधिक आर्थिक विस्थापन अगड़ी जातियों में है, जो आर्थिक रूप से ज्यादा सक्षम है। अति पिछड़े, भूमिहीन परिवारों में आर्थिक विस्थापन ज्यादा है।
Caste/community % of Household with Migrant
Upper Caste 69.8
OBC II 54.2
OBC 1 67.4
SC & ST 58.8
Muslim 77.4
Landless 66.1
Source: IHD Bihar Surveys, Household sample 2016
यह प्रमाणित करता है कि विस्थापन सिर्फ मज़बूरी नहीं बल्कि बेहतर विकल्प की तलाश की परिणति है। बिहार के दो तिहाई परिवारों के पास प्रवासी सदस्य है; प्रत्येक पांच सदस्यों पर एक सदस्य विस्थापित है। IHD Bihar Survey, 2016 के मुताबिक विस्थापित करने वाले 78.4 प्रतिशत लोगों का रोजगार जबानी कॉन्ट्रैक्ट पर है और 18.4 प्रतिशत लोगों का लिखित कॉन्ट्रैक्ट है। केंद्र और राज्य सरकारों को नियोजन नीति को बेहतर बनाना चाहिए। किन्तु आश्चर्य है कि श्रम सुधारों के प्रश्न को दबा कर श्रमिक बहुल राज्यों को पूरी तरह असफल बता कर कोसने की प्रवृति शोषक मानसिकता का प्रतीक है, जो भारत में लगातार जारी है।
उत्तर भारत से होने वाला आर्थिक विस्थापन भी कई प्रकार का है। इसे शार्ट टर्म, मिड टर्म और लॉन्ग टर्म में विभाजित किया जा सकता है। कई बार अच्छी जोत वाले परिवार के सदस्य भी शार्ट टर्म के लिए पलायन करते हैं। कोई घुमने, दूसरे प्रदेशों का अनुभव लेने तो कोई आत्मनिर्भरता के लिए तो पेट पालने की मज़बूरी में भी आर्थिक विस्थापन के लिए अन्य प्रदेशों में चला जाता है। कई लोग तो इसलिए विस्थापन कर जाते है क्योंकि उनकी सामाजिक श्रेष्टता की अवस्था उन्हें अपने आस-पास में निम्नस्तरीय और मध्यम स्तर का कार्य कर जीविकोपार्जन की इजाजत नहीं देती।
रेमिटेंस से आय का बड़ा भाग प्राप्त करने में बिहार का उदाहरण अकेला नहीं है। दुनिया के कई देश ऐसे है। आंकड़े बता रहे है कि कम आय वाले परिवारों में आर्थिक विस्थापन कम है; अधिक आय वाले परिवारों में आर्थिक विस्थापन ज्यादा है। यानी दूसरे शब्दों में आर्थिक विस्थापन आय बढ़ाने का जरिया हो गया है। भारत के आंतरिक हिस्से में दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र और गुजरात बिहारियों के आर्थिक विस्थापन के लिए अनुकूल है। आर्थिक विस्थापन से प्रगति के पथ पर जाने की कोशिश बिहारी बखूबी कर रहे है. इन राज्यों में कार्यरत बिहारी नागरिक द्वारा भेजी गई कमाई का अधिकतर भाग जमीन, शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च होता है।
पलायन के बारे में प्रमाणिक सत्य यह है कि दुनिया भर में आर्थिक विस्थापन से प्राप्त आय का जीडीपी में महत्वपूर्ण योगदान है। विश्व बैंक की रिपोर्ट 2023 के अनुसार कम और मध्यम आय वाले देशों में रेमिटेंस में 3.8 प्रतिशत का वृद्धि दर दर्ज किया गया है। दुनिया भर में रहने वाले प्रवासियों ने कुल 669 बिलियन डॉलर अपने देश में भेजा है। रेमिटेंस सिर्फ विशेष क्षेत्र के लिए लाभ का कारक नहीं रहा है. लैटिन अमेरिका में 8 प्रतिशत, दक्षिण एशिया में 7.2 प्रतिशत, पूर्वी एशिया प्रशांत क्षेत्र में 3 प्रतिशत, उप सहारा अफ्रीका क्षेत्र में 1.9 प्रतिशत प्राप्त हुआ है। रेमिटेंस का दुनिया की जीडीपी में 0.8 प्रतिशत का योगदान है, किन्तु कम और मध्यम आय वाले देशों में 1.7 प्रतिशत हिस्सेदारी है. भारत की जीडीपी में रेमिटेंस का योगदान 3.4 प्रतिशत है। विदेशों से रेमिटेंस पाने वाले देशों की वैश्विक सूची में भारत, मेक्सिको और चीन क्रमशः पहले, दूसरे और तीसरे स्थान पर है।
Remittance inflows (US$ million) 2023 % of GDP in 2023
India 125,000 3.4
Mexico 67,000 3.7
China 49,500 0.3
Philippines 40,000 9.2
France 34,000 1.1
Egypt, Arab Rep. 24,200 6.1
Pakistan 24,000 7.0
Bangladesh 23,000 5.2
Nigeria 20,500 5.3
Guatemala 19,855 19.3
Germany 19,000 0.4
Uzbekistan 16,100 17.8
Ukraine 15,700 9.1
Vietnam 14,000 3.2
Belgium 13,185 2.1
Morocco 12,130 8.3
Portugal (revising old numbers with BOP estimates) 11,179 4.1
Indonesia 11,000 0.8
Nepal 11,000 26.6
Italy 10,706 0.5
Dominican Republic 10,500 8.7
Colombia 10,160 2.8
Source: KNOMAD/World Bank, 2023.
इसी तरह से कई ऐसे देश है जो पलायित लोगों के कार ही विकास के पथ पर अग्रसर है। किर्ग रिपब्लिक, कुवैत, मकाउ, लेबनान, संयुक्त अरब अमीरात, ओमान और बहरीन जैसे 14 देशों से उनके जीडीपी का 5 प्रतिशत से 20 प्रतिशत तक अन्य देशों में भेज दिया जाता है। यह बाहर जाने वाली राशि उस देश में रह रहे प्रवासियों द्वारा अपने मूल देश में भेजा जाता है।
Remittance outflows (US$ million) 2022 % of GDP in 2022
United States 81,636 0.3
United Arab Emirates* 39,673 7.8
Saudi Arabia 39,349 3.6
Switzerland* 33,550 4.1
China 18,256 0.1
Kuwait 17,744 10.1
Germany 17,104 0.4
Luxembourg* 16,232 19.9
Netherlands* 15,386 1.5
France 15,267 0.5
Qatar 12,286 5.2
Italy 11,586 0.6
Poland 10,940 1.6
United Kingdom 10,918 0.4
India 10,089 0.3
Source: KNOMAD/World Bank, 2023
चूँकि औद्योगिक क्रांति से पहले अर्थव्यवस्था कृषि, बागवानी आधारित थी। औद्योगिकीरण के बाद उद्योगों और सेवा क्षेत्र का अर्थव्यवस्था में योगदान रहा। किन्तु अब इन्टरनेट क्रांति होने के बाद आईटी सेक्टर, एडवांस टेक्नोलॉजी से जुड़े कई सेक्टर का जीडीपी में योगदान बढ़ गया है और कृषि का का कम हो गया है। किन्तु सूचना क्रांति के बाद विश्व एक ग्लोबल विलेज की तरह हो गया है. एक देशों से दूसरे देशों में आवागमन बढ़ा है। ऐसे में रेमिटेंस अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण घटक बन कर उभर रहा है। यह करोड़ों परिवारों की जीवनयापन का साधन ही नहीं वरन दर्जनों देशों की अर्थव्यवस्था का मूल आधार भी बन गया है। अब यह कहने का कोई औचित्य नहीं है कि आर्थिक विस्थापन बुरा है, इसे रोका जाना चाहिए। मनुष्य की यह प्रवृति न रुका है न रुकेगा। हाँ, आर्थिक विस्थापन के कारण जिन राज्यों पर सवाल उठ रहे है उन राज्यों का यह दायित्व जरुर है कि नागरिकों को कुशल बना कर अपने राज्य की जीडीपी में रेमिटेंस की भागीदारी बढाने पर ध्यान दे।
वैश्विक संतुलन के लिए जरुरी आर्थिक विस्थापन
यदि आर्थिक विस्थापन नहीं हो तो यूरोप के कई देशों का विकास रुक जायेगा। सऊदी अरब जैसे कई देशों के विकास का पहिया आगे नहीं बढ़ेगा। कई देशों ने जरुरत के अनुसार आर्थिक विस्थापन का अपने देशों में स्वागत किया है। पिछले साल स्थायी विस्थापन वाले कनाडा में 526360, यूके में 672000 विदेशी नागरिकों का आगमन दर्ज किया गया है।
ऑस्ट्रेलिया, यूरोप के अनेकों देशों में जनसंख्या की कमी के कारण अन्य देशों से वर्कफोर्स की मांग तेजी से बढ़ रही है। यदि ऐसा नहीं हो तो तो कई देशों की अर्थव्यवस्था तबाह हो जायेगी। भारत में भी चीन की तरह ही आर्थिक विस्थापन हुआ है। चीन ने अपनी विस्थापित आबादी के श्रम के दम पर खुद को अमेरिका के समक्ष खड़ा कर लिया है। भारत में जनसँख्या की अधिकता होने के कारण नियोजन और प्रबंधन जैसी मूल समस्याओं से ध्यान हटाने के लिए धर्म, जाति, क्षेत्र के नाम पर हिंसा देखा जाता है। कभी दक्षिण भारतीयों तो कभी उत्तर भारतीयों के विरुद्ध महाराष्ट्र में हिंसा शुरू हो जाता है, तो कभी दिल्ली में बिहारियों और नॉर्थ ईस्ट के नागरिकों के के प्रति हीन भावना देखा जाता है। मानव की प्रवृति ऐसी है कि आर्थिक विस्थापन को रोका नहीं जा सकता है। निःसंदेह इससे उत्तर भारत के राज्यों बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड को छूट नहीं मिल जाती है कि वे अपने राज्यों में रोजगार सृजन न करे और न ही यह अकेले सिर्फ राज्य सरकार की जिम्मेदारी है। केंद्र सरकार से लेकर इन राज्यों के नागरिकों को भी रोजगार सृजन के अनुकूल माहौल में रहना सीखना होगा ताकि दुनिया के किसी भी हिस्से में उसे हेय नजर से न देखा जाए। साथ ही साथ विस्थापित लोगों से अन्य राज्यों समेत दुनिया भर का भला हो, इस दिशा में समाधान ढूंढने होंगे; नियोजन, प्रशिक्षण, कुशल, कामगार तैयार करने ही होंगे।
Article By:दुर्गेश कुमार(सामाजिक कार्यकर्ता, स्वतंत्र टिप्पणीकार, राजनीतिक विश्लेषक)Durgesh Kumar (Social Activist, Independent Columnist, Political Analyst)
