August 30 : Urban Naxal एक ऐसा शब्द जो पिछले दो–एक वर्षों से ही सुनने में आ रही है पर हममें से हरेक
के जीवन में इसकी पैठ बेहद गहरी रही है। हम इनके सामने दबते रहे,इनकी सुनते रहे। कभी मन मारकर
जीवन के अहम पड़ाव पर इनकी टेढ़ी नज़र से कैरियर बर्बाद ना हो जाये इस डर से,तो कभी हिंदी भाषा–भाषी
होने के नाते इनके बोये हीन–भावना की फ़सल पर अंग्रेज़ीयत के छिड़काव से सम्मोहित होकर। मगर आज ये शब्द अपने अजनबीपन के दायरे से निकल हम सबकी आँखों पर पड़े पर्दे को बड़ी तेज़ी से हटा रहा है। ये कमाल किया है विवेक जी की फ़िल्म ‘बुद्धा इन ए ट्रैफ़िक जाम’ ने। हम सबने फ़िल्म देखी,एक छिपे सच से परिचय हुआ । फिर सोशल–मीडिया पर विचारों का उबाल सा आ गया। ना जाने कितने लोग इस बेबाक़ फ़िल्म से तिलमिला उठे और अनावरण हुआ बुद्धिजीवी के मुखौटे तले ढंके उनके वास्तविक चेहरों का।
पर हम एक सच से अभी तक अनजान थे कि इस फ़िल्म के जन्म के पीछे की कहानी क्या थी ? Urban Naxal किताब को लिखने की मंशा शायद विवेकजी की यही थी कि हम जानें कि एक कॉलेज प्रोजेक्ट के तौर पर शुरू हुई इस फ़िल्म की कहानी ने सच में कई ज़िंदगियों को टुकड़ों में ही सही पर छुआ था। परंतु उन टुकड़ों को सही आकार कभी मिल ही नहीं पाता अगर विवेक जी और रोहित सरीखे गहन सोच वाले लोगों ने कभी कोशिश ही नहीं की होती। ये शायद ज़िंदगी का एक jigsaw puzzle था, और था भी वहीं सामने ही सबके । कुछ यूँ बिखरा था कि उसे जोड़ने वाला भी कोई ख़ास ही होता।
फ़िल्म बनने तक की दुश्वारियाँ एक ऐसी जद्दोजहद की बेमिसाल कहानी है जिससे हर वो शख़्स
अपने को जोड़ पायेगा जिसने ज़िंदगी में ऐसी जोड़–तोड़ करके, आँखों में सारी रात गुज़ार कर ही कुछ सपने साकार किये हैं। फ़िल्म बनकर तैयार हो गई,पर सिनेमा सिस्टम के ‘इंटरटेनमेंट और स्टार–वैल्यु’ के सामने लाचार हो ठंडे बस्ते में कहीं गुम सी गई थी। चार साल बाद देश JNU के लेफ्टिस्ट समर्थक छात्रों के भारत से आज़ादी माँगने से हतप्रभ सा खड़ा था। हर ज़ुबान पर “टुकड़े–टुकड़े गैंग “ के ख़िलाफ़ आक्रोश भरी बातें थीं। तभी विवेकजी ने देश को इनके असली चेहरों से पहचान करवाने की ठानी। शुरूआत की JNU के छात्रों के बीच जाकर उनका Urban Naxals से परिचय करवाने की। मगर ये सफ़र इतना आसान क़तई नहीं होने वाला था।
इस कहानी का असल और वीभत्स चेहरा तो अब शुरू होता है। किताब के पहले चैप्टर में ही बंगाल के जाधवपुर के लेफ़्ट समर्थक छात्रों का वहशियाना व्यवहार बताता है कि फ़िल्म बनने की कितनी सख़्त ज़रूरत थी। उग्र विचारधारा के तहत जब छात्रों का एक समूह जानलेवा हरकतों पर उतर आये तो समाज में एक नवचेतना जगाने की सख़्त आवश्यकता हो जाती है। मुझे याद पड़ता है कि बचपन में विद्यार्थी का संधि–विच्छेद विद्या +अर्थी = विद्यार्थी लिखकर हम ठी ठी ठी ठी करते कि जो विद्या की अर्थी निकाल दे वो विद्यार्थी । पर इस बचकानी सी बात को JNU, Jadhavpur, IIT Madras और NALSAR जैसे यूनिवर्सिटीज के लेफ़्ट समर्थक छात्रों ने सही साबित कर दिया। इनकी ज़हरीली विचारधारा ने अपनी एकतरफ़ा सोच को ही सही माना है,ज्योंही कोई इनसे सवाल करे तो तुरंत बुद्धिजीवी का चोगा उतार violent हो जाते हैं। आपकी हिम्मत को सलाम है कि इनके गढ़ में जाकर,जान की परवाह किये बग़ैर अपनी बात धमक से रख आये । फ़िल्म के प्रदर्शन के दौरान हर दूसरे विश्वस्तरीय यूनिवर्सिटीज् में एक के बाद एक violent interaction करने वाले ये लेफ़्ट समर्थक
छात्र सोची–समझी साज़िश के तहत हर ओछी हरकत करते नज़र आये। इस किताब ने उन्हें बेनक़ाब कर हमें
Urban naxals की गहरी जड़ों से रूबरू कराया ।
वहीं इस सफ़र में गमछाधारी मनीष तिवारी भी मिले जो शायद पहली नज़र में साधारण से दिखते हैं पर बात करने पर उनकी स्पष्ट सोच दिखती है। “ढोल गँवार,शुद्र,पशु,नारी,सकल ताड़ना के अधिकारी” को लेफ़्ट ने
हमेशा से यह कह कर प्रचारित किया कि ये सब पिटाई करने लायक हैं ऐसा आपके शास्त्र बताते हैं। पर बात इसके एकदम उलट है। अवधी भाषा में ताड़ना का अर्थ ख़्याल रखना,रक्षा करना है। अर्थात इन सबका ख़याल रखें हम,सामाजिक सुरक्षा दायरे में रखें। ये तो एक बानगी भर है,हमारी संस्कृति के बेहतरीन आयामों तक हमारी पहुँच के सारे रास्तों को यूँ ही कँटीली सोच से urban naxals ने पाट दिया है।
पर पहले फ़िल्म और अब इस किताब से आपने एक सच से हमारा सामना करवाया है जिसे जानकर सुलझे लोगों की जमात में दिनोंदिन इज़ाफ़ा हो रहा है। इस किताब ने फ़िल्म को एक नये परिप्रेक्ष्य से देखने पर हमें मजबूर कर दिया। हर दृश्य से कहीं ज़्यादा जुड़ाव महसूस हुआ,हर देशभक्त भारतीय ने अपने को इस मुद्दे से जुड़ा हुआ पाया । वहीं सोशल मीडिया ने वाकई आम लोगों को वो एक जगह दी है जहाँ एकजुट हो इनके ख़िलाफ़ लोगों ने पुख़्ता सबूत रख कर इनके बुने जाल को तार–तार किया है। आपने हर उस एक छोटी बात का इस किताब में ज़िक्र किया है कि जिससे ये फ़िल्म सोशल–मीडिया और छात्रों तक अपनी पहुँच बनाकर दिलों में घर कर गई। इस मिथक को तोड़कर कि सिनेमा सिर्फ़ मनोरंजन,मनोरंजन और मनोरंजन का ही नाम है,आपने समाज को उसके वास्तविक कुरूप पहलू से भी परिचय कराया है। जब समाज के इस आइने पर धूल की मोटी गर्त पड़ जाये तो उसे साफ़ करने की ज़िम्मेदारी भी हम सबकी है।सच को कबाड़ में फेंक देने से भी वो कभी नहीं बदलता।पर उसे साफ़ कर सबके सामने लाने की हिम्मत विवेकजी सरीखे विरले लोगों में ही होती है।सादर नमन है आपको और एक वादा है कि बात जब निकली है तो दूर तलक जायेगी।
जया रंजन
होममेकर !!
मेरी कलम खाँटी देशी सोच की स्याही से लिखती है !!
प्रवासी बिहारी !! संप्रति नॉयडा में !!
भारतीय संस्कृति,परंपराओं संग आधुनिक सोच की हिमायती !!
(the author can be reached at her twitter handle @JayaRjs)
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