कल 19 जनवरी है। 19 जनवरी के उल्लेख मात्र से ही, अपने ही देश में शरणार्थी का जीवन जीने वाले, कश्मीरी हिंदुओं की रुह काँप जाती है।
जब भारत के तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग ‘कश्मीर में इंटरनेट प्रतिबंधित’ होने को मानवाधिकार का उल्लंघन बताते हैं तो कश्मीरी हिंदुओ को ऐसा महसूस होता है जैसे वो इनके ज़ख़्मों पर नमक रगड़ रहे हैं।
4 जनवरी 1990 को स्वतंत्र और तथाकथित धर्म निरपेक्ष भारत में एक स्थानीय उर्दू अखबार, आफ़ताब और अल सफ़ा ने हिज़्ब-उल-मुजाहिदीन द्वारा जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में सभी कश्मीरी हिंदुओं और सिखों को तुरंत घाटी छोड़ने के लिए कहा। मस्जिदों से लाउडस्पीकर द्वारा कहा गया—या तो इस्लाम धर्म को अपनाओ, या इस घाटी को छोड़ने या मरने के लिये तैयार हो जाओ। फिर हाथों हाथ पर्चा बंटने लगा—“कश्मीर छोड़ दो, ये घाटी सिर्फ़ मुस्लिमों की है, अगर हमारी बात नहीं मानी तो शुरूआत तुम्हारे बच्चों से होगी।”
फिर शुरू हुआ भयानक खुनी खेल, जब कश्मीर की सड़कों पर मासुम हिंदुओं की लाशों के ढेर लगने लगे, मासुम बच्चों की लाशें देखकर एक राक्षस प्रवृत्ति के आँखों में भी आंसु आ गये। हैवानियत कहकहे लगाकर हँस रही थी जब मासुम हिंदु महिलाओं का सामूहिक बलात्कार किया गया।
मानवाधिकार कार्यकर्ता सुनंदा वशिष्ठ—जिन्होंने अमेरिकी कांग्रेस के पैनल के सामने एक बार गवाही दी थी—ने बी के गंजू नामक एक युवा इंजीनियर के बारे में दिल दहला देने वाला विवरण अमेरिका के एक पैनल को बताया: जेहादियों से भागते भागते बी के गंजू ने अपनेआप को मचान पर चावल के कनस्तर के पीछे छुपा लिया था। उसके बावजूद भी आतंकवादियों ने उसे कनस्तर के माध्यम से गोली मार दी और उसकी पत्नी को खून से लथपथ चावल खाने के लिए मजबूर किया था।
ऐसी अनगिनत ख़ौफ़नाक घटनाऐ हैं जिसमें लाखों कश्मीरी हिंदुओं को अपनी जान बचाने के लिये अपना घर बार छोड़ना पड़ा, जो आज भी अपने देश के विभिन्न हिस्सों में विस्थापितों की ज़िंदगी जी रहें हैं। बेबस कश्मीरी हिंदुओं के धर्मनिरपेक्ष मुस्लिम पड़ोसी और बचपन के मित्रों ने अपने खामोशी से कश्मीरी हिंदुओं के नरसंहार का भरपूर साथ दिया।
70 साल पूरानी बीमारी, धारा 370 को हटाकर वर्तमान सरकार ने निर्णायक सरकार होने का सबूत दिया है, जिसकी वजह से कश्मीर में राजनैतिक समस्या का समाधान तो हो गया है। परंतु इस्लामिक जिहाद और आतंकवाद को ऑक्सीजन प्रवाहित करने वाले इस देश के बौद्धिक आतंकवाद आज भी खुद को धर्मनिरपेक्षता के आड़ में छुपा कर बैठें हैं। उदाहरण के तौर पर दिल्ली के शाहीन बाग में CAA का विरोध कर रहे तथाकथित आंदोलनकारी कल 19 जनवरी को “जश्ने शाहीन” का उत्सव मना रहे हैं। यह किसी राजनितीक वक्तव्य से कम नहीं है: पहले हम नरसंहार करेंगें, फिर उत्सव मनाऐंगें।
कितनी अजीब बात है ना, जनवरी 1990 में कश्मीरी हिंदुओं का खुन सड़कों पर बहता रहा, ना ही सेना बचाने आई, ना पुलिस बचाने आई, उसके बाद न्याय पालिका भी ऐसे मौन रही जैसे कुछ हुआ ही नहीं। और ना ही भारत असहिष्णु हुआ, ना भारत का प्रजातंत्र ख़तरे में आया। आज जब अस्थायी रुप से इंटरनेट को बंद कर दिया गया तो मानवाधिकार का उल्लंघन हो गया। क्या इसका ये मतलब है इस देश में हिंदुओं को जीने का अधिकार नहीं?
