युद्ध किसी भी देश या मानव जाति के लिए एक अच्छा पर्याय नहीं है| परंतु अपनी संस्कृति और मातृभूमि की रक्षा करने हेतु वीर पुरुष सदैव युद्ध के लिये तैयार रहते हैं और हार या जीत की परिणाम सोचे बिना ही अपने आख़िरी साँस तक अपनी मातृभूमि के लिये लड़ते लड़ते वीरगति को प्राप्त हो जाते हैं। और उनके अदम्य साहस की वीर गाथाएं इतिहास में दर्ज हो जाती हैं| ऐसी ही एक कहानी 1962 के भारत-चीन युद्ध की है जिसको 13 कुमाऊँ रेजीमेंट ने लड़ी थी|
मेरे नानाजी 1962 के युद्ध में भारतीय सेना में सूबेदार के पोस्ट पर थे, और उस समय जम्मू कश्मीर के लद्दाख प्रांत में तैनात थे| अक्टूबर की ठंडी के मौसम में यह युद्ध प्रारंभ हुआ था| देश में अधिकतर लोगों के पास खाने के लिए दो समय का भोजन भी उपलब्ध नही होता था| और भारतीय सेना का भी ही कुछ ऐसा ही हालत था| जहां ऊनी कपड़े और ढंग के जूते भी सरकार अपनी सेना को मुहैया नहीं करा पाती थी| मेरी माँ बताती है उस युद्ध के दौरान, गाँव के नौजवान जो भारतीय सेना में शामिल हुए थे उनकी जानकारी भी आसानी से नहीं मिलती थी| रात्रि के 9:00 बजे जब गांव के किसी अमीर श्रीमान के यहां पर रेडियो सेट चालू होता था, तो पूरे गांव के लोग वहां इसलिये जमा होते थे ताकि उन्हें अपने गाँव से गये हुऐ जवानों के बारे में जानकारी मिल सके कि कहीं वो शहीद या घायल तो नहीं हुआ। आप शायद उस पीड़ा को समझ सकते हैं जहां किसी की पत्नी और बच्चे रेडियो पर सिर्फ यह सुनने के लिए जमा हुए हैं कि शायद आज उनके सर पर से प्यार का साया ना उठ जाए|
यह कहानी आपको इसलिए भी जान लेना बहुत जरूरी है क्योंकि आगे आपको उन 120 वीर महान पुरुषों के बारे में भी जान लेना चाहिए जिन्होंने अपने घर और अपनी जान की परवाह किए बगैर, अंतिम सांस तक एक ऐसी लड़ाई पर डटे रहे जहां दुश्मन हजारों की संख्या में था मगर इन नौजवानों का हौसला अंतिम सांस तक नहीं टूटा |
जम्मू कश्मीर के लद्दाख प्रांत में स्थित चुलसुल गांव जो कि 16000 फीट की ऊंचाई पर है, यहां पर स्थित सपानघर झील है जो कि भारत और चीन की सीमाओं के बीच बसा हुआ है| इस जगह का सामरिक महत्व यह है कि अगर दुश्मन चुलसुल गांव की ओर कब्जा कर ले तो उसे पूरे लद्दाख पर कब्जा करने पर में समय नहीं लगेगा|
सन 1962 की लड़ाई में यहां 13 कुमाऊं रेजिमेंट की चार्ली कंपनी तैनात थी| प्लाटून के कमांडर थे मेजर शैतान सिंह जिन्होंने रेजांग ला के जगह को 2 किलोमीटर तक मात्र 120 जवानों से मोर्चाबंदी कर दिया था।
18 नवंबर के सुबह 3:30 बजे हल्की बर्फबारी के बीच चीनी सेना ने हमला कर दिया| जमीनी हालात कुछ ऐसे थे कि भारतीय सेना वहां अपने तोप नहीं लगा सकती थी| हाथों में राइफल और लाइट मशीन गन लिए हुए भारतीय सेना के उन वीर बहादुर जवानों ने दो तरफ से बढ़ रही चीनी सेना का डटकर मुकाबला किया| बड़े-बड़े बोल्डर और नालों के बीच चीनी सेना के जवानों के लाशों की अंबार लग गई| भारतीय वीरों की इस आक्रमण को देख कर दुश्मन सेना के होश ठिकाने आ गए और एक वक्त को वह पीछे हटने के लिए मजबूर हो गए| परंतु उन्होंने चालबाजी से भारतीय सेना पर पीछे की तरफ से तोप गोलों से हमला कर दिया| अब कुमाऊं रेजिमेंट की चार्ली कंपनी तीन तरफ से दुश्मनों से जकड़ चुकी थी| परंतु मेजर शैतान सिंह की अगुवाई में चार्ली कंपनी के इस अहीर बटालियन ने अंतिम सांस तक लड़ाई लड़ी और करीब 1300 से ज्यादा चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया| ऐसा कहा जाता है कि मेजर शैतान सिंह जो बुरी तरह घायल थे उनको उनके साथियों ने युद्ध के दौरान ही दो बोलडरो के बीच लिटा दिया था| अपने कमांडिंग ऑफिसर को घायल देख कर भी जवानों ने हौसला ना खोया| अपनी मातृभूमि की रक्षा करते हुए अंतिम गोली और अंतिम सांस तक लड़ने वाले यह वीर 114 जवान शहीद हो गए| 3 दिन के बाद जब भारत चीन युद्ध खत्म हुआ तो बर्फ के चादर में दबे हुए इन जवानों के शव मिले|
मेजर शैतान सिंह उसी जगह पर शहीद हो गए| उन का पार्थिव शरीर पूरी सम्मान के साथ उनके गांव जोधपुर लाया गया और पूरे सैन्य सम्मान के साथ उनकी अंतिम विदाई की गई| उनके इस अदम्य साहस के लिए उनको मरणोपरांत सेना के सर्वोच्च सम्मान परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया|
कहा जाता है कि जब भारतीय सेना 3 दिन बाद रेजांग ला मैं अपने साथियों का शव लेने गई तो उन्होंने पाया कि हर सैनिक के हाथ मैं उनके हथियार तने हुए थे और गोलियां बारुद खाली| उस समय देश का नेतृत्व काफी कमजोर प्रधानमंत्री एवं रक्षा मंत्री कर रहे थे| इसके बावजूद -40 डिग्री के चिलचिलाते हुए ठंड में भी 13 कुमाऊं रेजिमेंट के नौजवानों ने अंतिम सांस और अंतिम गोली तक यह लड़ाई लड़ी जो विश्व के इतिहास मैं बहादुरी की एक मिसाल के नाम पर आज भी दर्ज है|
अंत में उन वीरों को आदरांजली जिनके वजह से हम यहां महफूज महसूस करते हैं|
जय हिंद
जय हो हिंद की सेना
